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Channel: Sudhinama
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किसे सहेजूँ ........?

कहो जीवन के सफर की इस लंबी रात में चहुँ ओर फैले  घनघोर अँधेरे को सहेज कर रखूँ या फिर  बियाबान जंगल में  कभी-कभार जुगनुओं से टिमटिमाते दिख जाते रोशनी के दो चार कतरों कोसहेज कर रखूँ …? कहो जीवन की बगिया...

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मेरा ‘मैं’

जब भी अपने हृदय का बंद द्वार खोल कर अंदर झाँका है अपने ‘मैं’ को सदैव सजग,सतर्क, संयत एवँ दृढ़ता से अपने इष्ट के संधान के लिये समग्र रूप से एकाग्र ही पाया है !ऐसा क्या है उसमें जो वह सागर की जलनिधि सा...

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बरगद से बाबूजी

आज भी  तपती धूप में जब सिर पर बादल की छाँह आ जाती है तो उन बादलों के बीच मुझे आपका ही आश्वस्त करता सा मुस्कुराता चेहरा क्यों दिखाई देता है बाबूजी ?आज भी  दहकती रेत पर जब मीलों चलने के बाद घने बरगद का...

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जागृति

मैं चल तो रही थी जीवन के दुर्गम मार्ग पर घने बीहड़ में, घनघोर अँधेरे में !पैरों में पड़े छालों की भी कहाँ परवाह थी मुझे,असह्य श्रम से क्लांत तन को मैंने तनिक भी विश्राम कब लेने दिया था ! इतने वर्षों में...

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छलना

 कब तक तुम उसे इसी तरह छलते रहोगे !कभी प्यार जता के,कभी अधिकार जता के,कभी कातर होकर याचना करके, तो कभी बाहुबल से अपना शौर्य और पराक्रम दिखा के, कभी छल बल कौशल सेउसके भोलेपन का फ़ायदा उठाके,तो कभी...

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ओ कालीदास के मेघदूत .....

ओ कालीदास के मेघदूत कहाँ हो तुम ? क्या तुमने भी कलयुग में आकर अपनी प्रथाएँ और परम्परायें बदल ली हैं ? क्योंकि नहीं करते ये मेघ अब विश्वसनीय दूत का काम,नहीं लाकर देते ये सन्देश विरहाकुल प्रियतमा को उसके...

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रणथम्भोर नेशनल पार्क – टाइगर सफारी के सुखद संस्मरण

२२ जून की सुबह आगरा कैंट स्टेशन से जब कोटा पटना एक्सप्रेस में सवाईमाधोपुर के लिये सवार हुए तो ट्रेन लगभग एक घंटे लेट चल रही थी ! रणथम्भोर जल्दी पहुँचने की उत्सुकता थी ! वहाँ के नॅशनल पार्क के टाइगर्स...

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रणथम्भोर नेशनल पार्क की सैर तस्वीरों की जुबानी

साधना वैद

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मैंने जीना सीख लिया है .......

सूनी अँधियारी रातों में घनघोर अन्धकार से जूझते हुए सितारों के धुँधले उजालों में मैंने आसमान से धरती तक फैले अंधकार के आवरण को चीरती आलोक की एक प्रखर लकीर को  ढूँढ लिया है ! पहाड़ों के दामन से बूँद-बूँद...

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एक पग तुमने बढ़ाया

एक पग तुमने बढ़ाया रास्ते मिलते गये ,गुलमोहर की डालियों पर फूल से खिलते गये ! भावना की वादियों में वेदना के राग पर ,एक सुर तुमने लगाया गीत खुद बनते गये ! चाँदनी का चूम माथा नींद से चेता दिया ,सुर्मई...

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प्रकृति हमारी माता है !

पर्वत, बादल, झरने, तरुवर,हवा, फूल, धरती, सागर ,ये कितना कुछ देते हमको हैं सारे गुण की गागर ! अटल अडिग निश्चय पर रहना पर्वत हमें सिखाते हैं ,बादल हर कर ताप जगत का रिमझिम जल बरसाते हैं ! कल-कल-कल झरनों...

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हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ?

घृणा और जुगुप्सा के मारे दोतीन दिन से संज्ञाशून्य होने जैसी स्थिति हो गयी है ! शर्मिंदगी, क्षोभ औरगुस्से का यह आलम है कि लगता है मुँह खोला तो जैसे ज्वालामुखी फट पड़ेगा !यह किस किस्म के समाज में हम रह...

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ख़्वाबों की पोटली

रात कस कर गाँठ लगी अपने ख़्वाबों की पोटली कोबड़े जतन से एक बार फिर मैंने खोला है !कभी मैंने ही अपने हाथों से इसे कस के गाँठ लगा संदूक में सबसे नीचे डाल दिया था कि आगेफिर कभी यह मेरे हाथ न आये ! शायद डर...

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क्योंकि यह प्यार है

क्यों वक्त के साथ ख्वाहिशों की कभी उम्र नहीं बढती ! क्यों आँखों के सपने बार-बार टूट कर भी फिर से जी उठते हैं ! क्यों उम्मीदें हमेशा नाकाम होने के बाद भी जवान बनी रहती हैं ! क्यों प्यार का सरोवर ज़माने...

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रानी

वह रोज आती है मेरे यहाँ अपनी माँ के साथ ! छोटी सी बच्ची है पाँच छ: साल की ! नाम है रानी ! माँ बर्तन माँज कर डलिया में रखती जाती है वह एक-एक दो-दो उठा कर शेल्फ में सजाती जाती है ! छोटे-छोटे हाथों से...

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हर शाख पे उल्लू बैठा है.......

इकबाल का एक शेर है –बर्बाद गुलिस्तां करने को तो एक ही उल्लू काफी था हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा ! भारतीय राजनीति के फलक पर यह शेर इन दिनों बिलकुल सटीक बैठता है ! घोटालों की लंबी...

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माँ

रात की अलस उनींदी आँखों मेंएक स्वप्न सा चुभ गया है ,कहीं कोई बेहद नर्म बेहद नाज़ुक ख़यालचीख कर रोया होगा ।सुबह के निष्कलुष ज्योतिर्मय आलोक मेंअचानक कालिमा घिर आयी है ,कहीं कोई चहचहाता कुलाँचे भरता मनसहम...

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कितने कर्ज़ उतारूँ माँ..... ?

ओ माँ...मैं तेरे कितने कर्ज़ उतारूँ ? तूने जीने के जो लिये साँसें दींउसका कर्ज़ उतारूँ या फिर तूने जो जीने का सलीका सिखाया उसका क़र्ज़ उतारूँ ! तूने ताउम्र मेरे तन पर   ना जाने कितने परिधान सजायेकभी रंग...

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बादल तेरे आ जाने से ...

बादल तेरे आ जाने से जाने क्यूँ मन भर आता है,मुझको जैसे कोई अपना, कुछ कहने को मिल जाता है ! पहरों कमरे की खिड़की से तुझको ही देखा करती हूँ ,तेरे रंग से तेरे दुःख का अनुमान लगाया करती हूँ ! यूँ उमड़ घुमड़...

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जब आवै संतोष धन..........

समाज में व्याप्त वैषम्य और विसंगतियों पर आक्रोश व्यक्त करने वालों को पहले एक दोहा सुनाकर नसीहत दी जाती थी कि उनके पास जो है जितना है उसीमें संतुष्ट रहना सीखें और दूसरों की थाली की चुपड़ी रोटी देख कर...

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